कुदरत से मुक़द्दर की माँग रोज़ कर्ता चला गया।जीने का एक और पल यूंही मिलता चला गया।
सांसों पर किसका ज़ोर है, जीवन एक नाज़ुक डोर है।।
इस बुलबुले सी ज़िंदगी को मैं रोज़ पीता चला गया।
कुदरत से मुक़द्दर की माँग रोज़ कर्ता चला गया।
सड़के आड़ी तिरछी हैं, चट्टानें भी कुछ बिखरी हैं।।
इस हिलती हुई ज़मीन पर मैं चलता चला गया।
कुदरत से मुक़द्दर की माँग रोज़ मैं कर्ता चला गया।
जीने की तो आशा है, मरने की अपनी भाषा है।।
मैं फिसलती ज़बान से जीने का राग गाता चला गया।
कुदरत से मुक़द्दर की माँग रोज़ कर्ता चला गया।
इक दिन मुकद्दर इतना मेहरबान न होगा।। मेरी मांगों का वो मेज़बान ना होगा।
मैं उस दिन अपना हक न रखूं किसी के आगे।। बस चल दूं चुप चाप इस जिंदगी के आगे और आगे।
कुदरत से मुक़द्दर की माँग रोज़ कर्ता चला गया।।
जीने का एक और पल यूंही मिलता चला गया।
ध्यान युवन